दुष्यंत कुमार : प्रेम का वो शायर जिसकी कविताओं ने क्रांति को जन्म दिया

Posted By: Abhishek Sharma

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ये तब का दौर था जब समाज में अज्ञेय जी और मुक्तिबोध का सर्वव्यापी असर था और दूसरी तरफ ग़ज़ल जो की मूलतः फारसी की एक विधा है उसके बारे में लोगो के मन में कुछ भ्रम और कुँच संकोच थे। एक तरफ जहाँ लोगों को अज्ञेय और मुक्तिबोध से आगे या अलग लेजाना मुमकिन नही दिख रहता वही ग़ज़ल के लिए लोगों की प्रतिक्रिया बदलना भी उतना ही कठिन महसूस हो रहा था। ऐसे में एक इन्सान आता है जो ना सिर्फ सरल है बल्कि निर्भीक है, जो बहादुर है, जिसमे परिवर्तन लेन का जूनून है, हिम्मत है और जो समाज में ना सिर्फ बदलाव चाहता है बल्कि बदलाव लेन की जद्दोजहद भी करता है।

कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए, मैनें पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है”

वो एक ऐसे कवि थे, जिनके अंदाज पर आज भी फिदा हैं देश और दुनिया के तमाम लेखक और कवि.
हम बात कर रहे हैं महान कवि दुष्यंत कुमार की जिनका जन्म 1 सितंबर 1933 को हुआ.आज दुष्यंत कुमार की जयंती है, लेकिन उनकी गजलों की दिलचस्प दुनिया की तरह उनकी जन्म तिथि और उसे लेकर खुद उनकी प्रतिक्रिया बड़ी मजेदार थी। हकीकत में, दुष्यंत कुमार का जन्म 27 सितंबर 1931 को बिजनौर जिले के एक गांव राजपुर नवादा में हुआ था पर किन्हीं कारणों से सरकारी अभिलेखों में उनकी जन्म तिथि 1 सितंबर 1933 दर्ज करा दी गई। दुष्यंत कुमार की रचनावली के संपादक विजय बहादुर सिंह ने रचनावाली के पहले खंड में इस वाकये को दर्ज किया है। दुष्यंत कुमार इस बात को यार दोस्तों के बीच बड़े ही मजेदार लहजे में बयां करते थे। कहते कि " महीने की 27 वीं तारीख तक तो जेब खाली हो जाती है। इसलिए जन्म दिन की खुशियां तो पहली तारीख को मिले हुए वेतन पर ही मनाई जा सकती हैं।"

ग़ज़ल को जनमानस की भाषा में अर्थात बिलकुल सरल भाषा में लिखने और फिर उसे घर घर तक पहुँचाने का श्रेय दुष्यंत कुमार को जाता है।दुष्यंत कुमार ने इतनी सरल भाषा में ग़ज़ल लिखी जिसे सामान्य इन्सान बिना किसी परेशानी के साथ पढ़, सुन और समझ सके! वो खुद ही एक ग़ज़ल में लिखते है कि

“मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ, वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ”

उनकी नज़र में वही भाषा सबसे असरदार है जिसे हम ओढ़ते बिछाते है।

आज के ही दिन उत्तर प्रदेश के बिजनौर में जन्मे दुष्यंत कुमार का पूरा नाम दुष्यंत कुमार त्यागी था। अपने लेखन के शुरुआत में परदेशी के नाम से लिखने वाले दुष्यंत कुमार ने बाद में अपना ही नाम लिखना शुरू किया। शुरुआती दौर में हर कलम की तरह दुष्यंत कुमार ने भी मोहब्बत की, प्यार की कविताएँ लिखी। अगर सब कुछ वैसा ही चलता जैसा शुरू हुआ था तो शायद दुष्यंत कुमार का नाम हिंदी के सबसे बेहतरीन मोहब्बत के कवि/ शायर के रूप में प्रचलित होता, इसका नमूना उनकी एक ग़ज़ल से पता चलता है जहाँ वो लिखते है कि

“एक जंगल है तेरी आँखों में, मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ
तू किसी रेल सी गुजरती है, मैं किसी पुल सा थरथरता हूँ
मैं तुझे भूलने की कोशिश में, आज कितनें करीब पाता हूँ”
(ये वो ग़ज़ल है जिसका जिक्र फिल्म “मसान” में कई दफ़े हुआ है)

पर बुद्ध की ही तरह जैसे जैसे समाज से मुलाकात होती रही, उन्हें समझ आता रहा कि आज की जरुरत प्रेम नही बल्कि आन्दोलन है! बदलाव है और बदलाव के लिए आन्दोलन जरुरी है जो की प्यार से नही आ सकता।
दुष्यंत की गजलों और कविताओं में भारतीय समाज की अभाव-वेदना और दुर्बल वर्गों की निरुपायता के इतने 'मंजर' भरे पड़े हैं कि लगता है कि खुद दुष्यंत कुमार ने अपने दौर को उन्हीं की नजरों से जिया था
दुष्यंत कुमार उन लोगो के मन में दबी आवाज़ और आग को भलीभांति पहचानते थे जिनके अन्दर आक्रोश था, आन्दोलन था पर साहस नही था। दुष्यंत कुमार ऐसे लोगो की आवाज़ बने, ऐसे समाज का आक्रोश बने, ऐसे वर्ग का साहस बने और ये उनके ही कलम का असर है कि आज भी समाज बदलने वाली हर आवाज़, बदलाव लाने की चाहत रखने वाला हर शख्स सबसे पहले उनकी लिखी इन पंक्तियों का प्रयोग करता है

“हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए

शायद उन्हें किसी का भय नही । न सरकार का, न सत्ता का, न प्रशासन का! इसीलिए हिंदी के सरकारी महकमे में होने के बाद भी उन्होंने जब भी जरुर पड़ी तब तब सरकार की आलोचना करने से भी खुद को नही रोक पाए। शासन व्यवस्था की आलोचना करते हुए दुष्यंत कुमार कटाक्ष लिखते है कि

“भूख है तो सब्र कर, रोटी नही तो क्या हुआ
आज कल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दा”

और जब बड़े अधिकारी उनसे ऐसा करने से मना करते है तो वो लिखते है कि
“तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं

मैं बेपनाह अँधेरों को सुब्ह कैसे कहूँ
मैं इन नज़ारों का अँधा तमाशबीन नहीं
ज़रा-सा तौर-तरीक़ों में हेर-फेर करो
तुम्हारे हाथ में कालर हो, आस्तीन नहीं”

समाज और सरकार में फैले भ्रष्टाचार पर दुष्यंत कुमार लिखते है कि
“इस सड़क पर इस कदर कीचड़ बिछी है
हर किसी का पाँव घुटने तक सना है”

दुष्यंत कुमार आगे लिखते है
“आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख,
पर अन्धेरा देख तू आकाश के तारे न देख ।

एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ,
आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख।”

वे सामाजिक परिस्थितियों पर भी अपनी लेखनी चलाते हैं। समाज में पनप रही संवेदनहीनता और मानवीय संवेदनाओं के ह्रास पर वे कहते हैं-

इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदात
अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियां
 

दुष्यंत कुमार की निर्भीकता का इससे बड़ा उदहारण क्या हो सकता है कि जब अधिकांश कवि/शायर और कलम सरकार से डरकर या तो लिखना बंदकर दिया या उनके पक्ष में लिखना शुरू कर दिया हो ऐसे में सीधे प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को निशाना बनाते हुए वो लिखते है कि
“एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है
आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है
एक बूढ़ा आदमी है मुल्क़ में या यों कहो—
इस अँधेरी कोठरी में एक रौशनदान है
कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है”
 

दुष्यंत कुमार की मूल्य-चेतना के निर्माण में उनकी 'तटस्थ- दया' से घृणा का बड़ा हाथ था. वह ऐसे लोगों पर बरसते थे जो आहतों के लिए 'आह बेचारे' कहकर आगे बढ़ जाते थे. वह इस सुविधावादी मध्यमवर्गीय संवेदना के धुर आलोचक थे. 'आवाजों के घेरे' संग्रह की एक कविता में वह इस स्कूल के विचारकों की खबर लेते हैं-
'इस समर को दूर से देखने वालो,
यह सरल है
आहतों पर दया दिखलाओ
'आह बेचारे!' कहो..

किन्तु जो सैनिक पराहत
भूमि पर लुंठित पड़े हैं
तुम्हारा साहित्य उन तक जाता
यह तटस्थ दया तुम्हारी
और संवेदना उनको बींधती है .
इस समर को दूर से देखने वालो
ये उदास उदास आंखें मांगती हैं
दया मत दो
इन्हें उत्तर दो'
  
हिंदी साहित्य और भारतीय समाज शायद ही कभी दुष्यंत कुमार का ऋण अदा कर सकता है। प्रेम मोहब्बत से शुरू हो कर समाज के आन्दोलन का वो कवि हिंदी साहित्य रूप असमान में ध्रुव तारे की भूमिका में रहे और सदा ही अमर हो गए।