प्रेमचंद : बनारस का वो नवाब जिसने भारत को किताबों मे समेट दिया

Posted By: Kathaankan
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हिन्दी साहित्य, हिन्दी कहानी और हिन्दी उपन्यास पढ़ने वाला शायद ही कोई ऐसा होगा जिसे प्रेमचंद के बारे मे ना पता हो! यहाँ तक कि स्कूल के बच्चे भी इस नाम से चिरपरिचित है। ईदगाह, दो बैलों की कथा, गबन, गोदान और ऐसी अनेकों कहानियाँ जो हिन्दी के पाठ्य-पुस्तक के माध्यम से बच्चों के दिलों और भारत के हर घरों में प्रेमचंद जीवंत हो उठे। उनकी कहानी पढ़ने वाला हर कोई चाहे-नचाहे उनके असर मे आ ही जाता है। भारत मे फैली गलत धरनाएं हो या समाज की कुरीतियाँ, प्रेमचंद ने उन्हे ऐसा प्रस्तुत किया कि पढ़ो तो मानो आँखों के सामने ही घटित हो रहा हो। अगर यूं कहे की प्रेमचंद हिन्दी साहित्य के शेक्सपियर है तो भी कोई अतिशयोक्ति नही होगी।मुंशी प्रेमचंद की कहानियाँ केवल कहानियाँ नहीं बल्की एक अलौकिक प्रकाश की भांति है जो हमारी सामाजिक एवं निजी भ्रांतियों के अँधेरे को मिटाने का प्रयास करती है।
खैर
इस ब्लॉग में हम जानेंगे कुछ ऐसी बातों को जो हमने आनंदित और आश्चर्यचकित कर देगी।
कौन थे हमारे प्रेमचंद
मुंशी प्रेमचंद का असली नाम धनपत राय था। 31 जुलाई 1880 को बनारस के पास स्थित लमही गाँव में आनंदी देवी और मुंशी अजायबराय के घर एक पुत्र का जन्म हुआ, नाम रखा गया, ‘धनपत राय’।प्रेमचंद के पिता मुंशी अजायबराय लमही में डाकमुंशी थे। प्रेमचंद अपने माता पिता की चौथी संतान थे। उनकी पहली दोनो बहनों की जन्म के कुछ दिन बाद ही म्रत्यु हो चुकी थी तथा उनकी तीसरी बहन का नाम सुग्गी था।प्रेमचंद बस आठ ही बरस के हुए थे कि उनकी माता चल बसी।सबसे छोटे और इकलौते बेटे होने के कारण पूरा परिवार उनसे बेहद स्नेह करता था। शायद यही स्नेह था जिसके कारण उनके चाचा ज़मींदार महाबीर ने उनका नाम ‘नवाब’ रखा था। आगे चलकर प्रेमचंद ने अपनी शुरूआती रचनाएं ‘नवाब राय’ के नाम से ही लिखी।
छोटी ही उम्र मे माँ का स्वर्गवास हो गया और नवाब साहब अकेले! पिता ने बेटे की खातिर दूसरी शादी जरूर की पर सौतेली माँ तो सौतेली, धनपत अपनी माँ को फूटी आँख ना सुहाए। वेदनाओं से घीरे नवाब साहब ने अकेलेपन का रास्ता चुन लिया और साथ ही तंबाकू खाने का भी। बचपन मे मिले इस दुख तकलीफ और वेदनाओं का ही असर है जो उनके कहानी मे देखने को मिलती है। बचपन मे जिया गया दुख ही है जिसकी झलक आपको प्रेमचंद की कई कहानियों में दिखाई देगी।
गुमसुम रहने वाले धनपत राय का कहानी से जुड़ना भी दिलचस्प किस्सा रहा। गुमसुम और अकेले रहने वाले प्रेमचंद को किस्से कहानियों में अपने हिस्से का सुकून मिला। वे अक्सर जिस तम्बाकू की दूकान में जाया करते वहां उन्होंने फ़ारसी भाषा में लिखी कहानी, ‘तिलिस्म-ए-होशरूबा’ सुनी। और यहीं से कहानियों से उनका नाता जुड़ गया। गोरखपुर के अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते हुए उन्होंने अंग्रेजी उपन्यासो को पढना शुरू किया जिनमे जॉर्ज डब्लू. एम. रेनोल्ड्स की ‘द मिस्ट्रीज ऑफ़ द कोर्ट ऑफ़ लंडन’ के आठो अध्याय भी शामिल थे।
प्रेमचंद ने अपनी पहली कहानी गोरखपुर में लिखी, जो कभी छप नही सकी। यह कहानी एक नवयुवक की एक निम्न जाति की महिला से प्रेम की कहानी थी। कहा जाता है कि इस नवयुवक का किरदार उनके सौतेले मामा पर आधारित था।
उनके बचपन का एक किस्सा और मशहूर है। कहा जाता है कि बचपन मे एक बार उन्होने एक बच्चे का कान काट दिया था। वाकिया ये था कि एक बार बचपन में वह मोहल्ले के लड़कों के साथ नाई का खेल खेल रहे थे। मुंशी प्रेमचंद नाई बने हुए थे और एक लड़के का बाल बना रहे थे। हजामत बनाते हुए उन्होंने बांस की कमानी से गलती से लड़के का कान ही काट डाला।
अपने बच्चे को तन्हा देखकर परिवार चिंतित होने लगा और इसी लिए 1895 में जब प्रेमचंद केवल 15 साल के थे तब उनके नाना (सौतेली माँ के पिता) ने उनका विवाह करवा दिया था। प्रेमचंद की पत्नी ऊँचे कुल की थी तथा उनसे उम्र में बड़ी थी। दोनों का स्वाभाव भी विपरीत था। दोनों ही इस विवाह से कभी खुश नहीं रहे और आखिर एक दिन उनकी पत्नी उन्हें हमेशा के लिए छोड़कर अपने मायके चली गयी। इसके बार उनका मन एक विधवा पर आया और उस समय विधवाओं के साथ हँसना बोलना भी पाप माना जाता था तो ये तो बहुत बड़ी बात हो चली। इस बात का भरपूर विरोध हुआ पर 1906 में सामाजिक विरोध के बावजूद प्रेमचंद ने बाल विधवा शिवरानी देवी से पुनर्विवाह कर लिया।
धनपतराय से ‘प्रेमचंद’ बनने का सफ़र !
शुरुआती दौर मे नवाब के नाम से लिखने वाले धनपत राय प्रेमचंद कैसे बने इसके पीछे भी एक रोचक कहानी है।उनका पहला उर्दू लघु उपन्यास, ‘असरार-ए-मआबिद’ (देवस्थान रहस्य) उन्होंने ‘नवाब राय’ नाम से लिखा था। ये उपन्यास मंदिर के पुजारियों द्वारा गरीब महिलाओं के शोषण पर आधारित था। यह उपन्यास, 1903 से 1905 के दौरान एक उर्दू साप्ताहिक आवाज़-ए-खल्क में प्रकाशित किया गया। 1907 में प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह, ‘सोज़–ए-वतन’ (देश का मातम) प्रकाशित हुआ। इस संग्रह में पाँच कहानियाँ थीं। दुनिया का सबसे अनमोल रतन, शेख मखमूर, यही मेरा वतन है, शोक का पुरस्कार और सांसारिक प्रेम।
पाँचों कहानियाँ उर्दू भाषा में थीं। १९१० में उनकी इस रचना के बारे में अंग्रेजो को पता चल गया। आज़ादी की जंग से जुड़ी इन कहानियों को देशद्रोही करार दिया गया। सोज़-ए-वतन की सारी प्रतियाँ जलाकर नष्ट कर दीं गयीं। और नवाब राय को हिदायत दी गयी कि अब वे कुछ भी नहीं लिखेंगे, यदि लिखा तो जेल भेज दिया जाएगा।इसके बाद वो धनपन राय की जगह प्रेमचंद के नाम से लिखने लगे। ये सलाह उन्हे उनके एक मित्र से मिली। उर्दू में प्रकाशित होने वाली ज़माना पत्रिका के सम्पादक और उनके दोस्त मुंशी दयानारायण निगम ने उन्हें प्रेमचंद नाम से लिखने की सलाह दी। इसके बाद वे प्रेमचंद के नाम से लिखने लगे।
उर्दू में प्रकाशित होने वाली ज़माना पत्रिका के सम्पादक और उनके दोस्त मुंशी दयानारायण निगम ने उन्हें प्रेमचंद नाम से लिखने की सलाह दी। इसके बाद वे प्रेमचंद के नाम से लिखने लगे।
इसके साथ कई ऐसे किस्से है जिसमे प्रेमचंद का अक्खड़पैन और देशभक्ति देखने को मिलती है। एक किस्सा उन दिनों का है जब नवाब साहब सरकारी नौकरी पर थे।उन दिनों मुंशी प्रेमचंद शिक्षा विभाग के डेप्युटी इंस्पेक्टर थे। एक दिन इंस्पेक्टर स्कूल का निरीक्षण करने आया। उन्होंने इंस्पेक्टर को स्कूल दिखा दिया। दूसरे दिन वह स्कूल नहीं गए और अपने घर पर ही अखबार पढ़ रहे थे। जब वह कुर्सी पर बैठकर अखबार पढ़ रहे थे तो सामने से इंस्पेक्टर की गाड़ी निकली। इंस्पेक्टर को उम्मीद थी कि प्रेमचंद कुर्सी से उठकर उसको सलाम करेंगे। लेकिन प्रेमचंद कुर्सी से हिले तक नहीं। यह बात इंस्पेक्टर को नागवार गुजरी। उसने अपने अर्दली को मुंशी प्रेमचंद को बुलाने भेजा। जब मुंशी प्रेमचंद गए तो इंस्पेक्टर ने शिकायत की कि तुम्हारे दरवाजे से तुम्हारा अफसर निकल जाता है तो तुम सलाम तक नहीं करते हो। यह बात दिखाती है कि तुम बहुत घमंडी हो। इस पर मुंशी प्रेमचंद ने जवाब दिया, 'जब मैं स्कूल में रहता हूं, तब तक ही नौकर रहता हूं। बाद में मैं अभी अपने घर का बादशाह बन जाता हूं।
प्रेमचंद अंधविश्वास के भी काफी खिलाफ थे।एक बार किसी बात पर उनकी पत्नी ने जब भगवान का नाम लिया तो उन्होंने कहा कि भगवान मन का भूत है, जो इंसान को कमजोर कर देता है। स्वावलंबी मनुष्य ही की दुनिया है। अंधविश्वास में पड़ने से तो रही-सही अक्ल भी चली जाती है।
गांधी जी के प्रभाव मे नौकरी छोड़ना, फिल्मों मे हाथ आजमाना, एक उर्दू और एक हिन्दी की पत्रिका का प्रकाशन शुरू करना पर असफल रहना ऐसे अनगिनत किस्से प्रेमचंद को सामान्य इंसान से बड़ा बना देता है। अपने अपनी सबसे बेहतर रचना उन्होने अपने अंतिम समय में लिखा था। गोदान, किसान होरी की कहानी थी जो किसानो के जीवन की दुर्दशा को बेहद मार्मिक रूप से दर्शाने के लिए याद की जाती है।
समय से आगे चलने वाले प्रेमचंद का अंतिम प्रकाशित उपन्यास 'कफ़न' था।
15 उपन्यास, 300 से अधिक कहानियाँ, ३ नाटक, १० अनुवाद, ७ बाल-पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना करने वाले प्रेमचंद का आखरी उपन्यास मंगलसूत्र पूरा नहीं हो सका और लम्बी बीमारी के बाद 8 अक्टूबर 1936 को उनका निधन हो गया। उनका अंतिम उपन्यास मंगल सूत्र उनके पुत्र अमृत राय ने पूरा किया।
सही मायनों में प्रेमचंद के कहानियों मे भारत की वो सच्चाई बसती है जो उमके दिल मे थी! जिस दर्द को उन्होने जिया, उसे किताबों मे ऐसे लिख दिया कि वो सदा के लिए अमर हो गए।
पर एक सच्चाई ये भी है कि हमने प्रेमचंद को वो मान नही दिया जो उन्हे मिलना चाहिए था। हमनें प्रेमचंद को महज स्कूली किताबों तक सिमित करके रख दिया। एक सच्चाई ये भी है कि जिन बातों और जिन मुद्दों पर लोग आज कल देशद्रोही घोषित कर दिए जाते हैं उन्हीं मुद्दों को प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में जीवंत कर दिया।